यक्ष कौन है? 


शास्त्रों ने मनुष्यों कौ दैव और आसुरी, उभय प्रकृति का रूप माना है। दिव्य गुणों को धारण करने वाले देवता और आसुरी प्रवृत्ति के लोग असुर संज्ञा से जाने जाते हैं। परमात्मा दैवी प्रकृति के लोगों की सहायता कर उन्हें विजयी बनाता है। उपनिषत्कार ने आलंकारिक कथा के द्वारा ब्रह्म की महत्ता और उसके सर्वोपरि प्रभाव एवं शक्तिमत्ता का विवेचन करते हुए केनोपन्शिद में इस रोचक प्रसंग की निम्न प्रकार से उद्भावना की है: 
देवासुर -संग्राम में ब्रह्म ने देवों की सहायता की तथा उन्हें विजयी बनाया। परन्तु ब्रह्म की सहायता को न समझकर देवगण इस विजय को स्वयंकृत समझने लगे तथा अहंकारी हो गए। तब इन देवताओं के अभिमान को जानकर वह परमात्मा यक्ष-रूप में उनके समक्ष प्रकट हुआ। अब देवता यह नहीं जान सके कि उनके समक्ष उपस्थित यह यक्ष कौन है? देवताओं ने अग्नि से कहा- हे जातवेद, इस यक्ष को जानने का तुम प्रयत्न करो। अग्नि ने देवों का अनुरोध स्वीकार किया। वह यक्ष के निकट गया तो यक्षरूपी ब्रह्म ने उससे पूछा कि वह कौन है? अग्नि का उत्तर था- मैं अग्नि हूँ, मेरा अपर नाम जातवेद है। अब यक्ष का प्रश्न था- तुम में क्या शक्ति है? अग्नि ने उत्तर में कहा- इस धरती पर जो कुछ है, उसे मैं जला सकता हूँ। यक्ष ने अग्नि के बल की परीक्षा के लिए एक तिनके को उसके समक्ष रख दिया और उसे जलाने के लिए कहा। अब अग्नि ने अपने सम्पूर्ण बल और पराक्रम को लगाया, किन्तु वह उस लघु तृण को नहीं जला सकता। निराश-भाव से अग्नि देव-मण्डली में लौट आया और उसने स्वीकार कर लिया कि वह यक्ष को जानने में असमर्थ रहा है।  
अब देव वर्ग ने वायु को यक्ष को जानने हेतु भेजा। वायु ने भी देवताओं के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। वह जब यक्ष के समक्ष पहुँचा तो उसने भी यक्ष से यही पूछा कि वह कौन है और उसमें क्या शक्ति है? वायु का उत्तर था- मैं वायु, अपर नाम मातरिश्वा हूँ। इस धरती पर जो कुछ है उसे उड़ा देने की सामर्थ्य मुझमें है। ब्रह्म ने पूर्व की भाँति वायु के समझ एक छोटा तिनका रख दिया। वायु ने अपना पूरा बल लगाया किन्तु वह तिनके को हिला भी नहीं सका। अंतत: निराश होकर वायु ने देवों के समीप जाकर यक्ष को न जान सकने की अपनी अक्षमता स्वीकार कर ली। 
तब देवों ने इन्द्र (आत्मा) से कहा कि हे मघवन्, आप जानें कि यह यक्ष कौन है? इन्द्र को देखकर यक्ष छिप गया। इन्द्ररूपी जीवात्मा के पहुँचते ही यक्षरूपी ब्रह्म का लुप्त हो जाना इस बात का प्रतीक है कि यथार्थ ज्ञान के अभाव में निकटवर्ती ब्रह्म को भी जानना जीव के लिए संभव नहीं होता। तब उस आकाश में हेमवती उमा (शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्मविद्या, नारायण स्वामी के अनुसार योग-प्रतिपादित ऋतम्भरा प्रज्ञा) प्रकट हुई। इन्द्र ने उमा से यक्ष का परिचय पूछा तो उसे उत्तर मिला कि ब्रह्म ही यक्ष है। ब्रह्म की इस विजय में ही तुम्हें महत्त्व लाभ होगा। प्रज्ञारूपी उमा से इन्द्ररूपी जीव को ब्रह्मरूपी यक्ष का वास्तविक ज्ञान हुआ।  
कथा का उपसंहार करते हुए पूज्य भाईजी कहते हैं - अन्य देवों की अपेक्षा इन्द्र की महत्ता अधिक है क्योंकि यही यक्षरूपी ब्रह्म को देखने और जानने में समर्थ हुआ। इन्द्र की महत्ता सर्वोपरि रही, क्योंकि उसी ने ब्रह्म को सबसे पहले जाना। वह ब्रह्म ही सब का आराध्य, उपास्य और वन्दनीय है। जो व्यक्ति उस ब्रह्म को इस प्रकार जानता है, उसको अन्य प्राणी भी चाहते हैं- अच्छा मानते हैं।